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Part 2 Paper Code-110) Hindi State Language Part 2 D.Ed (V.I.) मातृ भाषा का महत्त्व

मातृ भाषा

बालक जब जन्म लेता है, तो उसे भाषा का ज्ञान नहीं होता है। वह अपने माता-पिता तथा आस-पास के लोगों का अवलोकन करता है साथ ही आयु वृद्धि के साथ उसका अनुकरण करने का भी प्रयास करता है। इसी प्रकार वह भाषा सीखता है। अतः बालक अपने आस-पास के लोगों के अनुसरण से जिस भाषा को सीखता है, वह उसकी मातृ भाषा कहलाती है। मातृ भाषा का शाब्दिक अर्थ है--मां से सीखी गई भाषा। जबकि विस्तृत अर्थों में बालक के सामाजिक परिवेश से सम्बन्धित क्षेत्र विशेष के व्यक्ति मौखिक तथा लिखित रूप में जिस भाषा का प्रयोग करते हैं तथा जिसके द्वारा विचार विनिमय करते हैं, वही मातृ भाषा कहलाती है।

       क्षेत्र विशेष में समाज स्वीकृत, भाषा जिसके माध्यम से विचार तथा भाव विनिमय कार्य सम्पन होते हैं वही मातृ भाषा है।

परिभाषा

बैलेड के अनुसार-

माता-पिता से सुनकर सीखी हुई भाषा ‘माता की भाषा’ है एवं समाज द्वारा स्वीकृत मानक भाषा ‘मातृ भाषा’ है।

   उपरोक्त परिभाषा के अनुसार हम कह  सकते हैं, कि परिवार में आवश्यक नहीं, कि शुद्ध परिनिष्ठित भाषा का ही प्रयोग हो वहां बालक अपनीं माता से जो भाषा सीखता है वह समाज स्वीकृत मानक भाषा से भिन्न जो सकती है अतः यह भाषा केवल माता की भाषा कहलाएगी, इसे मातृ भाषा की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

मातृ भाषा का महत्त्व

बालक के जीवन में मातृ भाषा अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखती है। मातृ भाषा के द्वारा ही बालक का सर्वांगीण विकास सम्भव है। अपने विचारों तथा भावों को प्रकट करने का सबसे सरलतम साधन मातृ भाषा ही है। इसलिए प्रत्येक मानव के लिए मातृ भाषा का अत्यंत महत्व है इससे बालक की शब्दावली का क्रमिक और तीव्र विकास होता है मातृ भाषा में बालक की शब्दावली वृद्धि की गति को प्रो. स्मिथ इस प्रकार व्यक्त करते हैं—

1. एक वर्ष का बालक लगभग 3 शब्द सीख लेता है।

2. दो वर्ष का बालक लगभ 272 शब्द सीख लेता है।

3. तीन वर्ष का बालक लगभ 896 शब्द सीख लेता है।

4. चार वर्ष का बालक लगभ 1540 शब्द सीख लेता है।

5. पांच वर्ष का बालक लगभ 2070 शब्द सीख लेता है।

6. छः वर्ष का बालक लगभ 2562 शब्द सीख लेता है।

        इनमें से अधिकांश शब्द मातृ भाषा के ही होते हैं जो उसके विकास का आधार तैयार करते हैं मातृ भाषा के महत्व को हम निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट कर सकते है—

1) भाषा विचार विनिमय तथा भावों की अभिव्यक्ति का सशक्त साधन है

मातृ भाषा को बालक आरम्भ से ही सीख लेता है, जिसके कारण उसके लिए अपने भावों को उसके माध्यम से व्यक्त करना सर्वाधिक सरल होता है।

2) सांस्कृतिक विकास का आधार

मातृ भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लेने पर बालक की रूचि उसके साहित्य में भी बढ़ जाती है, जिससे किसी समाज का रहन-सहन, सभ्यता, परम्परायें, विचार धारायें एवं रीति-रिवाज आदि प्रतिविम्बित होते है यह ज्ञान प्राप्त करने के लिए मातृ भाषा में लिखा साहित्य ही सबसे सशक्त माध्यम है|

3) शैक्षिक महत्ता

मातृ भाषा का शैक्षिक महत्व सबसे अधिक है, क्योंकि किसी भी विषय का ज्ञान जितनी स्वभाविकता, सरलता एवं गहनता से मातृ भाषा के माध्यम से सम्भव है, उतना अन्य किसी भाषा से हो भी नहीं सकता।

4) शारीरिक विकास में सहायक

बालक के स्वास्थ्य विकास में मातृ भाषा का महत्वपूर्ण स्थान है बालक बाल्यकाल से मातृ भाषा के माध्यम से ज्ञान की प्राप्ति पर प्रसन्न रहने लगते हैं यह प्रसन्नता बालक के शारीरिक विकास को अवश्य ही प्रभावित करती है, क्योंकि प्रसन्न रहने पर बालक का शरीर भी स्वस्थ रहेगा और उसका शारीरिक विकास भी प्रभावित होगा|

5) बौद्धिक विकास में सहायक

महात्मा गांधी ने कहा है-मानव के मानसिक विकास के लिये मातृ भाषा उतनी ही आवश्यक है, जितना कि बालक के शारीरिक विकास के लिये माता का दूध।

बालक के बौद्धिक विकास के लिये मातृ भाषा अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि जब बालक अपनी मातृ भाषा के प्रति रुचि लेने लगता है तो उसका साहित्य के प्रति भी रुझान बढ़ता है। तथा वह साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने में रूचि लेने लगता है इससे उसकी विचार शक्ति विकसित होती है।

6) भावात्मक विकास

बालक अपनी मातृ भाषा के माध्यम से जब साहित्य का अध्ययन करते हैं, तब वे उसमें भावों को देखते हैं साहित्य में निहित सद्भाव उनके चरित्र को प्रभावित करते हैं तथा उनमें आपसी प्रेम, स्नेह तथा सौहार्द की भावना का विकास होता है। अधिकांशतः सम भाषा के कारण उनमें एकता, भातृत्व (भाई-चारा) की भावना भी उत्पन्न होती है|

7.) सामाजिक विकास

बालक बाल्य काल से ही दूसरों के साथ खेलना और वार्तालाप करना आदि आरम्भ कर देता है इन कार्यों हेतु उसे सर्वप्रथम भाषा की आवश्यकता होती है। जिसका सर्वोत्तम साधन मातृ भाषा है। साथ खेलने एवं रहने से उनमें सामाजिक गुण भी विकसित होते हैं। जो किसी भी व्यक्ति के लिए अति आवश्यक है क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है|

8.) नैतिक एवं चारित्रिक विकास

बाल्य काल से ही बालकों के नैतिक व चारित्रिक विकास पर ध्यान दिया जाने लगता है और यह कार्य मातृ भाषा के ही माध्यम से ही सम्भव है,आरम्भसे ही मातायें बालकों को अनेक कहानियां सुनाती है यह कहानियां सामान्यता मातृ भाषा में ही सुनायी जाती है| जिनका बालक पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है|

9.) सृजनात्मक शक्ति का विकास

सर्वप्रथम बालक जब कोई रचना करने की सोचता है, तब वह मातृ भाषा को ही चुनता है इसके माध्यम से ही वह छोटी-छोटी कहानी, लेख, छोटी-छोटी रचनायें करना प्रारम्भ करता है। अतः मातृ भाषा बालक की रचनात्मक एवं सृजनात्मक क्षमता का विकास करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है|

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