पाठ्यक्रम में मातृ भाषा
का स्थान
मातृ भाषा को समस्त ज्ञान का आधार माना जाता है।
प्रारम्भिक शिक्षा प्रायः मातृ भाषा के माध्यम से ही प्रदान की जाती है। इसीलिए यह
व्यक्ति के मानसिक नैतिक एवं सांस्कृतिक विकास में भी सहायक सिद्ध होती है| बालक
बिना शिक्षा प्राप्त किये ही मातृभाषा सीख लेते हैं और उनके प्रत्येक कार्य पर
इसका प्रत्यक्ष प्रभाव भी दिखाई देता है|
उच्च
स्तर की कक्षाओं में भी जहाँ शिक्षा का माध्यम को अन्य भाषा भी हो सकती है वहाँ भी
सीखने का आधार मातृभाषा ही होती है| इस लिए बालकों को यदि मातृभाषा का अच्छा ज्ञान
न हो तो उन्हें दूसरी भाषा सीखने में कठिनाई होती है|
अतः
उपरोक्त महत्त्वों को देखते हुए पाठ्यक्रम में मातृभाषा को अत्यन्त महत्वपूर्ण
स्थान प्रदान किया जाता है प्रारम्भिक कक्षाओं में इस पर अधिक ध्यान दिया जाता है|
संक्षेप
में मातृभाषा को मात्र एक विषय न चुनकर शिक्षा का अनिवार्य आधार कहा जाये तो उचित
होगा कुछ शिक्षा विदों को मानना है कि मातृभाषा को शिक्षा पर पाठ्यक्रम में 30%
स्थान होना चाहिए| कुछ शिक्षा विद इसी आधार पर त्रिभाषा सूत्र का समर्थन करते हैं|
पाठ्यक्रम में मातृभाषा की उपयोगिता को निम्न प्रकार से अधिक स्पष्ट कर सकते हैं—
1. मातृ भाषा विचार विनिमय का सरलतम साधन होने के कारण
बालक इसे शीघ्रता से ग्रहण कर लेते हैं।
2. बाल्यकाल से ही मातृ भाषा में बोलने, पढ़ने, लिखने, व सुनने के कारण इस पर
बालक का पूर्ण अधिकार हो जाता है और वह भाषा के चारों कौशलों में निपुण हो जाता
है।
3. मातृ भाषा के माध्यम से अध्ययन करने से
मौखिक चिन्तन की अभिव्यक्ति का विकास होता है।
4. इसके माध्यम से बालक पर
सभ्यता, संस्कार एवं संस्कृति का प्रभाव प्रारम्भ से ही पड़ने लगता है|
5. मातृभाषा के माध्यम से
बालक समाज में अपना स्थान बनाते हैं और सामाजिक
अन्तःक्रिया में निपुण हो जाते हैं।
इस
प्रकार हम देखते है कि व्यक्ति के जीवन में मातृभाषा का महत्त्व किसी भी अन्य भाषा
से अधिक है अतएव पाठ्यक्रम में इसका स्थान निश्चित रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है|
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